kashish

Add To collaction

लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया

सोफी का मस्तक विनय के हृदय-स्थल पर झुक गया, नेत्राों से जल-वर्षा होने लगी, जैसे काले बादल धारती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी निकला, मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोधा है, पर शुष्क और दाह-युक्त; आनंद की सीमा भी कंठावरोधा है, पर आर्द्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक-एक अंग में, नाड़ियों की एक-एक गति में, आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधाार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोकों या लहरों के प्रवाह के साथ डावाँडोल होगी, वरन् सुव्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी।

 

विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंधा थी, प्रकाश में प्राण, किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व था, जो देखने में अप्रिय, सुनने में कटु, छूने में कठोर और स्वाद में कड़घई हो। वहाँ के फूलों में काँटे थे, सूर्य में इतनी उष्णता थी,जमीन पर व्याधिायाँ थीं, दरिद्रता थी, चिंता थी, कलह था, एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम-सरोवर में विहार कर रहे थे। इस सुख-स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरस, कितना निराशाजनक था, यह ऍंधोरी कोठरी कितनी भयंकर!

 

सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा-डार्लिंग, अब विलम्ब करो, बहुत देर हो रही है, सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा।

 

सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुण-कम्पित स्वर में बोली-घबराना नहीं, मैं कल फिर आऊँगी।

 

विनय को ऐसा जान पड़ा, मानो नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह मर्माहत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आई, फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली-मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनाेंं यहाँ से चले जाएँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं।

 

सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुर, उत्सुक, प्रेम में डूबे हुए शब्द किसी मधाुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूँजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक औषधिायाँ सेवन कराईं। पलंग पर नर्म बिछौना था, तकिए लगे थे, पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक-एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता था, और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा-मैं बिलकुल अच्छा हूँ, आप सब जाएँ, शाम को आइएगा।

 

डॉक्टर साहब डरते-डरते बोले-आपको जरा नींद जाए, तो मैं चला जाऊँ।

 

विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद जाएगी। डॉक्टर अपने अपराधाों की क्षमा माँगते हुए चले गए। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकाया, जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा था, मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगा; पर वह अभिलाषा पूरी हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा-सत्कार में कोई कसर रखना, नहीं तो मेम साहब जहन्नुम में भेज देंगी।

 

शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक है, जितनी धयान के लिए वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ-अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआ, तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ सम्बध्द हैं। सोफी के प्रेम-पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित किया, इसीलिए उन्होेंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जाएगा। दु: तो पिताजी को भी होगा; पर वे मुझे क्षमा कर देंगे, उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुध्दि-ही-बुध्दि है; पिताजी में हृदय और बुध्दि दोनों हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँ? मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँ, जो संसार में किसी ने किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैं, जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया हो? स्वार्थ के साथ जाति का धयान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया है, किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। फिर जाति के अधिाकारियों में न्याय और विवेक नहीं,प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहीं, उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधो के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता है?

 

शनै:-शनै: भावनाओं ने जीवन की सुख-सामग्रियाँ जमा करनी शुरू कीं-चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा-सा मकान बनवाऊँगा, साफ,खुला हुआ, हवादार, ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति से निवास करेंगे। आडम्बर बढ़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगा, क्यारियाँ बनाऊँगा, कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूँगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधाकर कहूँगा-सरकार, कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा-रानीजी, कुछ निगाह हो जाए। कभी-कभी सोफी भी पौधाों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर-भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल गात पसीने से और सुंदर वस्त्रा पानी से भीग जाएगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलँगा। कभी-कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगी, डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनंद कहाँ, वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता है, उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डाँड़ा चलाऊँगा, सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग होंगे। कभी-कभी प्रभु सेवक भी आएँगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगे, जहाँ मंगल बाँहें फैलाए हमारा इंतजार कर रहा है।

 

सोफी और क्लार्क की आज संधया समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजेेंं सज गईं और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किए, तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा-उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियम, तुमने देखा, उसका मुख कितना पीला पड़ गया था?

 

क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुध्द उत्तार दिया-मर्ूच्छा में बहुधाा मुख पीला हो जाता है।

 

सोफी-वही तो मैं भी कह रही थी कि उसकी दशा अच्छी नहीं, नहीं तो मर्ूच्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराधा की काफी सजा पा चुका है, उसे मुक्त कर देना उचित होगा।

 

नीलकंठ-मेम साहब, उसकी सूरत पर जाइए। आपको ज्ञात नहीं, यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जाएगा। बड़ा ही जिद्दी है, रियासत से बाहर जाने पर राजी ही नहीं होता।

 

क्लार्क-ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है।

 

सोफी ने उत्तोजित होकर कहा-मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय-शून्य हो!

 

क्लार्क-मुझे तुम्हारा जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं।

 

सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की दृष्टि से देखा। यह गर्व, यह आत्मगौरव कहाँ से आया? तिरस्कार भाव से बोली-एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं।

 

क्लार्क-साम्राज्य-रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया से, जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता हो, उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता हो, किसी दु:खी जीव को सांत्वना मिलती हो, उसका मैं कायल हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं उस सम्पत्तिा से वंचित नहीं हूँ; लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर दे, विद्रोहियों को सर उठाने का अवसर दे, प्रजा में अराजकता का प्रचार करे, उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहीं, पागलपन समझता हूँ।

 

सोफी के मुख-मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दी, पर उसने जब्त किया। कदाचित् इतने धौर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धार्म-परायणता का सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता है। नर्म होकर बोली-हाँ, इस विचार-दृष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाए, तो फिर इस रियासत में कदम रखेगा, और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धानी है।

 

नीलकंठ-क्या आपसे उसने वादा किया है?

 

सोफी-हाँ, वादा ही समझिए, मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ।

 

नीलकंठ-इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता।

   0
0 Comments